Wednesday, September 3, 2014

एक थी सिंगरौली : भाग ५ 

आपको लग सकता है कि मैं भी उन अतीतजीवियों में से हूँ जो हर पुरानी चीज़ को  ओल्ड इस गोल्ड की तर्ज पर महिमामंडित करते हैं। मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि नया कुछ करने की चाह में कितना कुछ हम खो रहे हैं इसका भी ख्याल रखा जाये। क्यूंकि बहुत सी चीज़ों को खोने के बाद हम चाह कर भी दोबारा हांसिल नहीं कर सकते। यह भी देखा जाता है कि कोई भी नयी चीज़ एक और जहाँ ढेरों सुविधाएं लाती है तो दूसरी ओर अपने पीछे समस्याओं की लम्बी कतार भी लाती है। मोबाइल, इंटरनेट देखते देखते दुनिया में छा गए क्यूंकि इन्होने सुविधाओं के अम्बार लगा दिए लेकिन इसके साथ साइबर क्राइम की सुनामी भी आई। अश्लीस एम. एम. एस., फेक आई. डी. आदि के चलते कितनी लडकियां प्रताड़ित हो रही हैं , कितनी ही लड़कियों ने आत्महत्याएं की हैं।  सीधी सी बात है कि भेड़ चाल में शामिल बजाय किसी भी निर्णय पर पहुँचने के पहले उनसे होने वाले फायदे और नुक्सान पर बिना किसी हड़बड़ी के अच्छी तरह से  विचार किया जाना चाहिए वरना देश और दुनिया में और भी सिंगरौली जैसी त्रासदियां होंगी. 

आइये सिंगरौली की बात करूँ।  संभवतः अगस्त १९८४ में हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार स्वर्गीय निर्मल वर्मा सिंगरौली की संक्षिप्त यात्रा पर लोकायन और लोकहित की पहल पर आये थे। उन्होंने परियोजना क्षेत्र- कोयला खदान, बिजलीघर , पुनर्वास बस्ती के साथ साथ माडा के जंगल, ऐतिहासिक गुफाएं और गांवों का भी भ्रमण किया। गांव में धान की रोपाई चल रही थी, घुटनो तक पानी में घुसी, सिरों पर वियतनामी खेतिहर महिलाओं की तरह पत्तियों और बांस से बना लम्बा हैट लगाए, गीत गाते धान की रोपाई करती हुयी महिलाओं को देखकर निर्मल वर्मा जी बहुत प्रभावित हुए थे। दिल्ली जाकर उन्होंने सिंगरौली जहां कोई वापसी नहीं शीर्षक से एक लेख लिखा था। उनकी अनुभवी आँखो ने सिंगरौली का भविष्य उसी समय पढ़ लिया था जिसे हम लोग आज ३० सालों बाद देख रहे हैं। उस लेख में निर्मल वर्मा ने एक घटना का ज़िक्र किया था कि कई वर्ष पहले 
जब वे एक इतालवी कहानी का अनुवाद कर रहे थे तब उन्हें एक शब्द मोलोक का हिंदी समानार्थी शब्द नहीं 
सूझ रहा था। मोलोक ऐसा दैत्य था जो अंधिया उडाता चलता, जो देखते देखते हरी भरी पहाड़ियों और गांव के गांव निगल जाता था। जब  उन्होंने सिंगरौली की कोयला खदान क्षेत्रों में चीखते चिल्लाते मिटटी का पहाड़ उठाये, दौड़ते , धूल भरी आँधियाँ उड़ाते विशाल काय डम्परों, मिटटी काटने की बड़ी बड़ी ड्रग लाइनों, बिजलीघरों से बड़ी मात्र में निकलने वाली कोयले की राख के लिए बनाये गए बड़े-बड़े राख बांधों जिन्होंने गांव के गांव निगल लिया था , पहाड़ों को निगल जाने वाले तमाम स्टोन क्रशरों से उठने वाली पत्थर की धूल को जब उन्होंने देखा तब उन्हें उस इतालवी दानव मोलोक का चेहरा सिंगरौली में दिखाई दिया था। 

निर्मल वर्मा जी का लेख सिंगरौली जहाँ कोई वापसी नहीं उस समय मुझे और कुछ साथियों को छाती पर रक्खी  भारी शिला  जैसा लगा था क्यूंकि उस समय हम सभी उत्साह से लबालब भरे थे लग रहा था विश्व बैंक का  बढ़ता चक्का सिंगरौली में रोक देंगे।  वह तो सिंगरौली में विस्थापन के खिलाफ चले लम्बे संघर्षोंके बाद साफ़ हुआ कि वैश्विक पूँजी के आगे अब तक के ये प्रयास नाकाफी थे। यह सही है की संघर्षों से विस्थापितों को तात्कालिक लाभ हुए लेकिन विश्वबैंक अपने मक़सद में कामयाब रहा। यानि सिंगरौली क्षेत्र में उसने वैश्विक पूँजी के हरावल दस्ते के रूप में निजीकरण के लिए राह बनायीं।  इसीलिए हम सन २००० के बाद से सिंगरौली में ऊर्जा के क्षेत्र में निजी कम्पनिओं आमद देखते हैं जो साल दरसाल  तेज होती गयी। निजी कम्पनिओं के आने के बाद सिंगरौली क्षेत्र मे  विस्थापन का यह तीसरा दौर सबसे भयावह है। निजी कंपनियों के गुंडों की फ़ौज, गांव गाँव में उनके पैदा किये गए दलालों, मूक दर्शक  बने अथवा कंपनियों से सहानुभूति रखने वाले प्रशासन ने स्थानीय लोगों की विरोध की आवाज़ों को उनके हलक में ही घुटने को  मजबूर कर दिया है। 

- अजय 
bhonpooo.blogspot.in 

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