आज दिल की कलम से …
मैं जिसके हाथ में एक फूल देके आया था
उसी के हाथ का खंज़र मेरी तलाश में है।
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नज़र मिला न सके उससे उस निगाह के बाद
वही है हाल हमारा जो हो गुनाह के बाद।
मैं कैसे और किस सिम्त मोड़ता खुद को
किसी की चाह न थी दिल में तेरी चाह के बाद।
ज़मीर काँप तो जाता है आप कुछ भी कहें
वो हो गुनाह से पहले के हो गुनाह के बाद।
गवाह चाह रहे थे वो बेगुनाही का
ज़बां से कह न सका खुद खुद गवाह के बाद।
खतूत कर दिए वापस, मगर मेरी नींदें
इन्हें भी छोड़ दो इक रहम की निगाह के बाद।।
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इक ग़ज़ल उसपे लिखूं दिल का तक़ाज़ा है बहुत
इन दिनों खुद से बिछड़ जाने का धड़का है बहुत
रात हो, दिन हो, गफलत हो की बेदारी हो
उसको देखा तो नहीं है उसे सोचा है बहुत।
तश्नगी के भी मुक़ामात हैं क्या क्या यानी
कभी दरिया नहीं काफी कभी कतरा है बहुत।
मेरे हाथों की लकीरों के इज़ाफ़े हैं गवाह
मैंने पत्थर की तरह खुद को तराशा है बहुत।
कोई आया है ज़रूर और यहां ठहरा भी है
घर की दहलीज़ पा-ए नूर उजाला है बहुत।
- कृष्ण बिहारी नूर
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