Saturday, May 2, 2020

फ़िल्म #Nero'sguests की समीक्षा

फ़िल्म #Nero'sguests की समीक्षा 

कल रात मिशन #Sensiblecinema के तहत दीपा भाटिया निर्देशित एक घंटे की डॉक्यूमेंटरी फ़िल्म Nero'sguests देखी जो  विदर्भ के किसानों द्वारा की जाने वाली आत्महत्या की त्रासदी को बयां करती है। इस फ़िल्म को सजेस्ट करने के लिए मित्र ऋत्विक मुखर्जी का आभार। यकीनन एक घंटे की ये डॉक्यूमेंटरी भारतीय अन्नदाताओं की दयनीय दशा के मूल कारणों को जिस ढंग से उठाती है, किसानों पर काम करने वाले द हिन्दू के रूरल अफेयर्स एडिटर पी साईनाथ जिस ओजपूर्ण ढंग से सरकार से दहकते सवाल करते हैं उन्हें सुनकर आला हुक़्मरान की बोलती बंद हो जाती है। ये विडंबना नहीं तो और क्या है कि जो देश साठ प्रतिशत कृषि अर्थव्यवस्था पर निर्भर है उस देश के अन्नदाता आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं। विदर्भ पूर्वी महाराष्ट्र का वो हिस्सा है जहां से 1992 के बाद से आए दिन किसान आत्महत्या कर रहे हैं पर मीडिया ने इस मुद्दे को उठाना ज़रूरी नहीं समझा। भला हो पी साईनाथ जैसे संवेदनशील पत्रकारों का जिन्होंने अपनी लेखनी के ज़रिए देश और सरकार का ध्यान इस ज्वलंत मुद्दे की ओर आकर्षित किया और बताया कि फैशन, बिजनेस, पॉलिटिकल रिपोर्टिंग से इतर रूरल रिपोर्टिंग भी ज़रूरी है क्यूंकि असली भारत आज भी गांवों में बसता है जिसके मुद्दे मैनस्ट्रीम में जगह ही नहीं पाते। बड़े अफसोस की बात है कि जब कोई फैशन वीक मनाया जाता है तो उसे कवर करने के लिए देश के कोने कोने से फैशन पत्रकार इकट्ठा हो जाते हैं और फैशन वीक को ग्रैंड कवरेज मिलता है पर जब देश का कोई अन्नदाता मारता है तो उसे कवर करने के लिए एक भी पत्रकार नहीं आता। सरकारी आंकड़ों के अनुसार विदर्भ के अब तक दो लाख से ज़्यादा किसान अपनी जान गवा चुके हैं। विदर्भ कॉटन की उपज के लिए जाना जाता है पर 1990 के बाद चली उदारीकरण की बयार, सरकार का किसानों के प्रति गैरजिम्मेदार रवैया, खाद बीज का सस्ते दामों पर उपलब्ध ना होना, सिंचाई की सुविधा का ना होना, बिजली की आपूर्ति, उपज का उचित दाम आदि ना मिलने के कारण किसान कर्ज़ में डूबता ही चला जाता है और जब उसे कहीं से भी उम्मीद की किरण नहीं दिखाई देती तो मजबूरन वो आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाता है। इस देश का दुर्भाग्य तो देखिए किसानों की मदद के लिए सरकार के पास फंड नहीं होता पर बड़े बड़े बिजनेसमैन को अरबों का कर्ज़, सस्ते दामों पर बिजली और ज़मीन मुहैया कराई जाती है, स्पेशल इकोनोमिक ज़ोन बनाए जाते है ताकि उनका व्यापार खूब फले फूले। खेती को घाटे का सौदा इसलिए साबित किया जा रहा है ताकि आने वाले समय में किसान खेती छोड़ दिहाड़ी मजदूर बन जाए और बड़ी बड़ी कंपनियों को खेत की ज़मीन लीज पर देकर सरकार कॉरपोरेट खेती को बढ़ावा दे सके। शिक्षा, स्वास्थ्य की तरह खेती का भी निजीकरण किया जा सके। पी साईनाथ को सुनना अपने आप में एक अद्भुत अनुभव है। मौका निकालकर इस फ़िल्म को ज़रूर देखिएगा, आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार की आंखों से छलकता दर्द आपको बेचैन कर देगा। नीरो रोम का आखरी शासक था जो बड़ा ही क्रूर था, अपने राजनैतिक फायदे के लिए किसी को भी मरवा देना उसके लिए बड़ी बात नहीं थी। पी साईनाथ जेएनयू के हिस्ट्री के छात्र रहे हैं इसलिए उन्होंने रोम के नीरो का ज़िक्र करते हुए उनके गेस्ट्स के हवाले से विदर्भ में मर रहे किसानों के मुद्दे को बेहद संजीदगी से उठाया है।
दीपा भाटिया वही हैं जिन्होंने तारे जमीं पर, माई नेम इज़ खान, काई पूछे, स्टूडेंट ऑफ द ईयर जैसी फिल्में एडिट की है। दीपा भाटिया स्क्रीन राईटर एवं डायरेक्टर अमोल गुप्ते की पत्नि हैं। इस संवेदनशील मुद्दे को डॉक्यूमेंटरी के ज़रिए उठाने के लिए दीपा को साधुवाद साथ ही पी साईनाथ जी को भी।

2 comments:

  1. वाह! उम्दा लिखा है आपने, मैंने कईं साल पहले यह फ़िल्म देखी थी,यह लेख पढ़कर फ़िल्म वापिस याद आगई। शुक्रिया।

    ReplyDelete
  2. बहुत बहुत शुक्रिया ऋत्विक जी।

    ReplyDelete